प्रेम की पराकाष्ठा- अवनीश कुमार

एक आहट जैसे प्रिय के पाँवों की हल्की चाप,
एक सुखद अहसास ऐसे जैसे स्नेह रस से सींचती माँ,
एक मनमोहक अनुभूति ऐसे जैसे कोयल की कूक,
एक सुंदर मुखड़ा ऐसे जैसे चाँदनी रात में निकला चाँद,
घनघोर अँधेरे को चीरती एक रोशनी जैसे दीपक की लौ,
छटपटाहट ऐसे जैसे पानी बिना मछली,
प्रेम कुछ ऐसा, जैसे गोपियों संग कृष्ण,
बेचैन मन ऐसे जैसे प्रिय के खो जाने का भय,
प्रतीक्षारत नयन ऐसे जैसे नभ में उमड़ते-घुमड़ते बादल,
सब्र की सीमा ऐसी जैसे पत्थर बनी अहिल्या,
अटल विश्वास ऐसे जैसे राम की प्रतीक्षा में निर्निमेष वैष्णवी
नयन तृप्त पल ऐसे जैसे शबरी और राघव का मिलन,
स्नेहासिक्त आलिंगन ऐसे जैसे कृष्ण और सुदामा का मिलन,
और सब कुछ अर्पण जैसे सागर का संगम,
परम सुख ऐसे जैसे दानी हर्ष का दान,
और सब कुछ और अब कुछ नहीं,
कुछ नहीं और सब कुछ।

अवनीश कुमार
बिहार शिक्षा सेवा
व्याख्याता
प्राथमिक शिक्षक शिक्षा महाविद्यालय विष्णुपुर, बेगूसराय

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