मन की चाह -एस.के.पूनम

S K punam

मुक्त रहूँ निशा के स्याह चादर से,
बहते शीतल पवन के झोंकों में,
भोर भए अंगडाई लूँ नूतन वेला में,
प्रकृति की सौंदर्य समाहित हो मुझमें।
बंद चक्षुओं को खोलता रहूँ बारम्बार,
भरता रहूँ नव-जीवन के रंग अनेक,
स्वर में भरता रहूँ रिश्तों का अनुराग,
उर की वीणा से करता रहूँ मृदुल झंकार।
खोलूँ जकड़े सभी के हृदय-कपाट,
न खुले तो करूँ उस पर कठिन प्रहार,
जहाँ बंद हो मस्तिष्क का समस्त द्वार,
वहाँ खोल उसमें भरता रहूँ समग्र ज्ञान ।
उस निज पथ से गुजरता रहूँ सदा,
जहाँ तिमिर तिरोहित हो जाए सदा,
आमंत्रण देता रहूँ जन-जन को उस पथ पर,
जहाँ प्रज्जवलित हो सदा आशा की ज्योत ।
बारिश की बूंदें बन कर गिरूँ वहाँ पर,
जहाँ तपिश से वसुंधरा हो रही हो बेहाल,
सिंचित हो मेरे नीर से पुष्पों की क्यारियां,
नूतन पल्लव खिलकर महके सदा वहाँ।
राष्ट्रवाद का विचारधारा जन-जन में भरूँ,
विश्व-मंच पर राष्ट्र गरिमा का ध्वज फहराऊँ,
चाणक्य का अनुगामी बन चंद्रगुप्त बनाऊँ,
सदा से यही रहा है मेरे “मन की चाह” ।

एस.के.पूनम(स.शि.)फुलवारी शरीफ,पटना।

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