वर्षा रानी-जैनेन्द्र प्रसाद “रवि”

Jainendra

 

वर्षा रानी

उमड़-घुमड़ कर बादल गरजे बूंदें गिरती आसमानी,
पृथ्वी पर अपना प्यार लुटाने आती हैं वर्षा रानी।
ग्रीष्म ऋतु से विह्वल होकर पेड़-पौधे मुरझाते,
प्रचंड धूप से आहत होकर जीव-जन्तु अकुलाते।
सूर्य ताप से राहत मिलती जब बरसती झमाझम पानी।
ताल-तलैया भर जाते हैं जीव-जन्तु हर्षाते,
जलचर-थलचर साथ मिलकर गीत खुशी के गाते।
प्रकृति अद्भुत दिखती है तन पर ओढ़े चूनर धानी।
कृषक बृन्द तब आलस्य त्याग हल-बैलों संग जाते,
खेतों में झींगुर तान छेड़कर सुंदर राग सुनाते।
नयी फसलें पा लहलह करतीं खेतों की नई जवानी।
दादुर, मोर, पपीहा बोले वन में नाचे मोर,
बच्चे झूम-झूम कर नाचे सुन वर्षा की शोर।

अच्छी वर्षा से खुश होकर झूमे मजदूर, किसान,
चहुँ ओर हरियाली छाती पंख लगते उनके अरमान।
मजदूरन के कंठ से निकले कर्णप्रिय मधुर वाणी।
वर्षा पर ही टिकी हुई हैं पृथ्वी की हरियाली।
हरे-भरे जहाँ जंगल हों वहाँ समृद्धि-खुशहाली।
मौसम भी करवट बदलता है जब लोग करते मनमानी।
अगर चाहते अच्छी वर्षा तो भैया पेड़ लगाना,
बिना जंगल नहीं मंगल होगा पड़ेगा हमें पछताना।
समय पर ऋतुओं का आना अब हो गई बात पुरानी।
वर्षा रानी के रूठने पर छाई लोगों के बीच उदासी,
लाख सिंचाई करने पर भी रहती धरती प्यासी की प्यासी।
वर्षा के कारण बची हुई हैं पृथ्वी पर जिन्दगानी।
पृथ्वी पर अपना प्यार लुटाने आती हैं वर्षा रानी।

जैनेन्द्र प्रसाद “रवि”
बाढ़(पटना)

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