Site icon पद्यपंकज

एक कविता,स्वयं के लिए

Giridhar

एक कविता,स्वयं के लिए

कुछ सच बताऊं,इससे पहले
एक शपथ लेता हूँ आपसे,
आप इसे भूलेंगे नहीं,
मेरे साथ मेरे गम में डूबेंगे नहीं।

मैंने खुली छूट दे रखी है
विसंगतियों को,बाधाओं को
और स्वयं के लिए तय कर रखा है
बस चलते रहने का संकल्प।

हारता हूँ, टूटता हूँ, गिरता हूँ मैं,
सम्मुख अपने ही बिखरता हूँ मैं
और इकट्ठा कर पाता हूँ
चुन चुन कर इनसे
खोये दबे हँसी के टुकड़े कुछ
जीवन के बहाने कुछ…
यहाँ चलने का जतन फिर भी अच्छा है
हार कर भी हार नहीं मानना
फिर भी अच्छा है।

कितनी ही कड़ियाँ हैं
कितनी ही लड़ियाँ हैं,
इस धागे में गुंथे हैं वसंत,
पछिया की झुलसाती लू लबार भी।

आपकी बस बढ़ना ही होता है,
बिना ठहरे,बिना अधिक सोचे,
जब भी मौका मिले,
आप प्रदीप्त हो सकें,
सूरज के प्रकाश से,
ढूंढ सकें
जुगनू की अनबूझ स्पर्धाएं,
जब चाँदनी निहाल होती है
और मिल पाता है मुझे
एक सही रास्ता
जिस पर चल पाता हूँ मैं,
स्वयं से लड़ पाता हूँ मैं।

यह परे है
किसी विजेता के अनुभव से,
यह अलग है,
हार के किसी विचलन से…
यह तो बस चलना है,
यह तो बस चलते जाना है।

-गिरिधर कुमार,शिक्षक,
उत्क्रमित मध्य विद्यालय जियामारी,
अमदाबाद, कटिहार

0 Likes
Spread the love
Exit mobile version