बुढ़ापे की सहारा हेतु
बहुत ही जतन से,
संतान को बड़ा करें, लोग यहाँ पोस-पाल।
जब रोजगार मिले,
जीवन में कली खिले,
बाहर जा बस जाता, अलग गलाता दाल।
माता-पिता छोड़कर,
जाए मुंह मोड़कर,
अपनों को भूल जाता, नहीं करे देखभाल।
बच्चों संग रम जाता
अपनी ही दुनिया में,
हाल-चाल लेता नहीं, हाय कलयुगी लाल।
जिसको था सिखलाया
चलना संभल कर,
वही आज बतलाता, कैसे चलें हम चाल।
जो जगाया सारी रात,
वही नहीं करें बात,
बात-बात पर सदा, हमसे फुलाता गाल।
दुनिया की करे सैर,
अपनों से करे वैर,
रोज साथियों के आगे, केवल बजाता गाल।
बुढ़ी आंखें थक जाती
बेटे की राह देखते,
उम्मीद होता धराशाई, रखें जो सपना पाल।
सुख चैन छिन जाता
पुत्र के वियोग में ही,
एक सूखी रोटी बिना धँस जाती आंखें-गाल।
जैनेन्द्र प्रसाद रवि’
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