दोहावली
हे माता सुरपूजिता, करूँ चरण प्रणिपात।
मैं मूरख मतिमंद हूँ, भरो ज्ञान-अवदात।।
अमिय ज्ञान देना मुझे, देना स्वर झंकार।
हृदय-मग्न गाता रहूँ, लेकर अनुपम प्यार।।
वाणी मधुरिम हो सदा, सरल सौम्य व्यवहार।
उज्ज्वल मन के भाव में, ले जीवन आकार।।
शुभदे माँ हंसासना, करो नवल उत्थान।
नीर क्षीर सम कर सकूँ, सुघड़ लक्ष्य संधान।।
वाणी की देवी मुझे, दे दो राग- विहाग।।
मधुर बोल गाऊँ सदा,भरकर उर-अनुराग।
रसना निर्मल भाव ले, बने कर्म आधार।
सच्ची पूजा है यही, करे यही उद्धार।।
सत्य कर्म जब प्रीति हों, देती तब माँ साथ।
सच्चे पूजन भाव से, लगे सफलता हाथ।।
चिंतन कर लो मुदित मन, वंदन कर को जोड़।
पग-पग देती साथ माँ, जीवन देता मोड़।।
अधरों को दे ज्ञान-स्वर, निर्मल करो विचार।
यही निवेदन नित करूँ, चाहत हो साकार।।
पावन वंदन नित करूँ, करके हृदय अनूप।
अनुनय विनती है सदा, भरो ज्ञान का कूप।।
देव कांत मिश्र ‘दिव्य’
भागलपुर, बिहार