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मोबाइल का जाल – सुरेश कुमार गौरव

Suresh-kumar-gaurav

मोबाइल आया संग में मिली सुविधा,
बढ़ती गई इस विचित्रता की दुविधा।
ज्ञान-विज्ञान का खोल के पिटारा,
छीन लिया हमसे अपनों का सहारा।

सुबह उठें तो स्क्रीन की तलाश,
रात सोएं तो आँखों में प्रकाश।
बातें अब दिल से कम होती हैं,
चैट विंडो में साँसें मानों खोती हैं।

न रिश्तों की गर्मी, न खुले संवाद शेष,
हर चेहरा अब बस स्क्रीन में विशेष।
माँ बुलाए, बच्चा देखे गेम, याद नहीं काम
पिता करें पुकार, पर न हो पढाई तमाम!

खेल-कूद की दुनिया रही पीछे,
संसार सिमट गया अंगूठे के नीचे।
आँखें थकीं, मन पूरा उदास हुआ,
पर मोबाइल का ही सब दास हुआ।

आओ जागें, सजग बनें फिर से,
जीवन को जोड़ें सजीव रिश्ते से।
मोबाइल रखें बस एक उपकरण,
ना बने वह जीवन का नियंत्रण।

थोड़ा समय अपनों को भी दें ,
हर क्षण को कर्म सजीव करें।
इस मोबाइल से मोह घटाएँ हम,
जीवन को जीवन अर्थ बनाएं हम।

@सुरेश कुमार गौरव, प्रधानाध्यापक, उ.म.वि.रसलपुर, फतुहा, पटना (बिहार)

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