शूरसेन के पुत्र थे महामना वसुदेव,
शरीर से थे वे मानव, गुणों से वे देव,
उनकी पहली आदरणीया भार्या रोहिणी,
थी वह पतिपरायणा, थी धर्मचारिणी,
सत्यनिष्ठ, कर्त्तव्यपरायण थे कंस के मित्र,
मथुरा में रहकर भी था उनका उदात्त चरित्र,
देवकी थी मथुरा की आदरणीया राजकुमारी,
थी सुशील, सत्यनिष्ठ, सच्चरित्र, सुकुमारी,
सुयोगवश देवकी-वसुदेव का हो गया विवाह,
इस विवाह हेतु प्रतीक्षारत था सकल जहाँ,
कंस को ज्ञात हुआ उसका जो अष्टम पुत्र होगा,
उसके वही काल बनकर उसका अन्त कर देगा,
इस भय से वह बहन-बहनोई को कैद में डाल दिया,
सोचा, मैं अब जीत गया, अपने काल को टाल दिया,
पर ईश्वर छोड़ विधाता से कौन जीत सकता है,
है कौन नर! जो अपनी मृत्यु को भी टाल सकता है,
समय आ गया, एक एक पुत्र ने जन्म लिया,
मातुल कंस ने एक एक कर वध कर दिया,
सप्तम् पुत्र की बारी आयी, बलराम गर्भ पधारे,
हरि ने कहा, हे देवि, इस पुत्र को रोहिणी सम्भाले,
होगा इनका नाम संकर्षण, राम और बलराम,
लोकरंजन करेंगे ये निशदिन, होंगे बल के धाम,
अष्टम् पुत्र की बारी आयी, श्रीहरि स्वयं पधारे,
जन्म ले, माता-पिता को दे आनन्द, दुख संहारे,
नंद यशोदा के गृह पुत्री रूप में अम्बा आयी,
नंद की पुत्री बनकर वह नंदा भगवती कहलायी,
यशोदागर्भसम्भवा निवास उनका हुआ विन्ध्याचल,
भक्तवत्सला, मनोरथपूरक विन्ध्यवासिनी कहलायी,
बाल रूप के हरि रूप के आने से सभी मोहित हो गये,
वसुदेव, इसे नंद के घर आओ, नभ से वाणी आयी,
कैद में महाप्रकाश ने जन्म धारण कर लिया,
जग-तम के विन्ध्वस हेतु निज प्रण कर लिया,
यमुना होते पहुँचे वसुदेव गोकुल नंद गाँव,
मथुरा सहित गोकुल को मिला कृष्ण-छाँव,
चारों ओर उत्सव छा गया, नंद के घर गोपाल पधारे,
आनन्द का चहुँओर शोर मचा, दुख, विपदा हारे,
दोनों बालकों के नामकरण का समय आ गया,
जगत् की आसुरी वृत्तियों पर अँधेरा छा गया,
देव, ऋषि, गायन वादन कर रहे, मस्तमगन हो रहे,
नंद के कुलगुरु शांडिल्य को नामकरण-दायित्व मिला,
उसी समय वसुदेव के कुलगुरु ऋषि गर्ग पधारे,
शांडिल्य ने महान ऋषि गर्ग को प्रणाम किया,
दिव्य बालकों के नामकरण का दायित्व दिया,
गर्ग कहते, कितने पुण्य सफल हुए, जो यह सौभाग्य मिला,
ऐसा सौभाग्य पाकर अब जगत् में नहीं किसी से कोई गिला,
आचार्य गर्ग ने दोनों दिव्य बालकों को करबद्ध प्रणाम किया,
बलराम, कृष्ण को नाम देकर इतिहास में स्वर्णिम नाम किया,
बलराम, कृष्ण ने गोकुल से ले सारे जग को आनन्द किया,
‘जय कन्हैया लाल की, हाथ घोड़ा पालकी’ जय रुक्मिणी-पिया।
गिरीन्द्र मोहन झा ‘शिक्षक’
+2 उच्च विद्यालय चैनपुर- पड़री, सहरसा