देखता हूँ
गौर से
क्षितिज के पास
लेकिन सम्मुख सा
सभी कुछ के साथ
स्वयं की प्रतीति
ऊहापोह और विश्रांतता
दोनों ही!
यह तो अपना ही चेहरा है!
यह तो अपनी ही छवि है!
नहीं कवि!
यह तो घोर समुन्दर है,
बस किसी तरह तैरकर निकल जाओ
अपनी ही किसी कविता
कविता के किसी छंद के सहारे,
वहाँ क्षितिज तक
जो अनाम है,
जो बेहद वास्तविक भी है।
और जीवन क्या है,
इन्हीं विराधाभासों का सम्मिलन है,
इन्हीं का साक्षात्कार है,
जो अच्छा है,
बुरा है,
एक सम्मिलित विचार है।
नहीं कवि!
यह सब इतना भी आसान नहीं है,
इन बातों का कुछ प्रमाण नहीं है,
यह कैसी कल्पना है तुम्हारी?
यह तो मात्र कल्पित है,
एक अभिव्यंजना है।
अरे बाप रे बाप!
अब इसका क्या जवाब दूं,
अपनी कविता को अब
कौन सा अवतार दूं!
नहीं, यह सब न हो सकेगा मुझ से,
जो पूछना है,
मेरी कविता से ही पूछ लो।
मुझे रहने दो
आत्मलय… …
सम्मुख क्षितिज के,
सवालों, जवाबों से बेपरवाह,
स्वयं की प्रतीति करने दो,
निहारने दो अपना ही चेहरा,
अपनी ही आंखों से… …
मुझे रहने दो
आत्मलय… …।
गिरिधर कुमार
उ. म. वि जियामारी
अमदाबाद, कटिहार