एक दीया
दुनियाँ ने कहा-तू है एक “दीया”
तू ही बता तेरी “औकात” क्या?
हँसता है तिमिर तुझे देखकर
सामने “सूरज” के, तेरी बिसात क्या!
जमाने के ताने को “दीये” ने सुना
कुछ भी न बोली न दिल से लिया,
“विश्वास” की बाती हाथों में थामकर
हँसकर उसने दुनियाँ से कहा-
हूँ छोटी मगर मुझमें है “हौसला”
मेरे जज्बे की तुम मत करो फैसला
काबिल है सूरज तो, मैं भी कम नहीं
छोड़ मेरे भरोसे “रात” को वह चला।
पता मेरी “कीमत” की चल जाएगी
“दिन” थककर जब साँझ को घर जाएगा,
घेर लेगा अंधियारा तेरी “रात” को
तब “कीमत” मेरी समझ आयेगी।
तेरी खातिर “तम” से भी भिड़ जाऊँगी
जीवन में उजाला “मैं” कर जाऊँगी,
“कहर” बनके तुफाँ भी आये अगर
दुनियाँ के लिये उससे लड़ जाऊँगी।
“तुच्छ” होता नही कोई संसार में
धैर्य रखना सदा अपने उदगार में,
“तिनके” की कीमत उसे ही पता
जो फँसा हो कभी बीच मझधार में।
स्वरचित एवं मौलिक
डॉ अनुपमा श्रीवास्तवा
आर. के. एम +2 स्कूल
जमालाबाद, मुजफ्फरपुर, बिहार