खुशी
खुशी, आज-कल कहां टिकी रहती हो?
इस भाग-दौर में ज्यादा नहीं मिलती हो!!
लगता है अब भाव भी अधिक खाती हो!
न जाने आकर फिर कहां चली जाती हो!!
पहले “खुशी” तो आसपास ही थी अब तो!
खुशियां बांटने हरदम भी नहीं आती हो!!
बचपन और यौवन काल में तो थी खुशी!
लगता अब तो परेशान सी खुशी लाती हो!!
खुशी ! खुद हो पर समय पर ही देती हो!
मन को चहका-दहका-महका पाती हो!!
“खुशी” देकर लगता खुद ही दुःख सहती हो!
पहले घर, मुकाम भी मिला क्या लगती हो!!
“खुशी” इस दौर में क्यूं परेशान सी करती हो!
अब तो लगता स्वा़ंस में भी पीड़ा भरती हो!!
माना कि हर सिक्के के दो पहलू होते हैं!
समय के अनुसार ही लगता बदलती हो!!
पर गिले कुछ हैं भी नहीं, शिकवे भी कहां हैं?
क्षणिक “खुशी” देकर भी तृप्त कर जाती हो!!
“खुशी” को खुशी कभी मिलती भी है या नहीं!
इसका अर्थ भी पूर्ण सार्थक नहीं बताती हो!!
स्वरचित
सुरेश कुमार गौरव ✍️
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