उसके सपने मेरे सपने
बड़े जतन किये
समझने के
उसकी
तोतली जुबान को
शब्द सा कुछ नहीं
अर्थ सा कुछ नहीं
एक लय!
लय सा है फिर भी
चलता
लुढ़कता
उन सपनों के संग
हमारे ही
लड़कपन के सपने…
यह वैसा ही क्यों है
हू ब हू!
रंग भी वैसा ही
उमंग भी वैसा ही
यह कैसे
होता है भला
यह कैसे
जोड़ता है भला
इस साझी मस्ती में
बच्चों की बस्ती में…
लगता है
जतन और भी
किये जाने
शेष हैं
यह अशेष सा
किस्सा है कुछ
बस साथ संग
चलते रहने का
कारवाँ सा कुछ!
…शेष हैं अभी
ढेरों कुछ यत्न
ढेरों कुछ प्रयत्न
स्वयं के समझने
के लिये
मेरे बच्चे
तुम्हें समझाने के लिये…
उदास बचपन
आंखें
सूजी सूजी सी हैं उसकी
अब भी मोबाइल पर आये
ढेरों पाठ बांकी बचे हैं
उसे भी
पूरा करना है
बचपन परेशान है
उसे और भी लड़ना है
वह
पढ़ता मात्र है पाठों को
गढ़ने की कहाँ
फुरसत मिलती है
वह खुलकर
बोलता हँसता भी कहाँ है
बस बुदबुदाने भर की
तबियत होती है
यह कैसी
नवीनता है
ज्ञान की प्रवीणता है
रो रहा है बचपन देखो
कैसी ये
अधीरता है
यह ठीक है
विकल्प नहीं
समय संगत ही होना है
खोना बचपन भी
तो नहीं
इस नेमत को
संजोना है
दो बोझ उतना ही
सह जो सके
यह कोंपल जिसमें
दब न सके
वह खेले इठलाये
दृढ़ बने
समय संगत सुदृढ़ बने
बस संतुलन रहे
इतना
की बचपन
हँसता रहे
की इनकी प्यारी
आँखों में
कल का सूरज
चमकता रहे!
गिरिधर कुमार, संकुल समन्वयक, संकुल संसाधन केंद्र म. वि. बैरिया, अमदाबाद, कटिहार