देव -दृष्टि का स्वपुँज ,
कर में लिए क्यों फिरते हो ?
संतप्त हो या अभिशप्त अभी ,
कुछ क्यों न धरा हेतु करते हो ?
परिवर्तन करना वश में है ,
जीवन की बेला निराली है ।
सब ओर तुम्हारी ज्योति जली ,
क्या अब भी गुनना खाली है ?
तम को उजाड़ ; पथ में निहाल ,
विश्वास अडिग हो यदि मन मे ।
अविराम को रख ;विराम भुला ,
क्या रखोगे अपनी शेष कला ?
जीवन को निष्प्रभ करो नही ,
है समय शेष अभी तेरे लिए ।
सृष्टि का कण -कण त्वरित करो ,
जीवन के सुंदर समतल में ।
आलस्य तजो ; सन्मार्ग धरो ,
कर्त्तव्य विमुख स्वीकार्य नही ।
क्या प्राण बिना निष्प्राण हो तू ,
जब होता कुछ अलभ्य नही ।
रचयिता :-
अमरनाथ त्रिवेदी
प्रधानाध्यापक
उत्क्रमित उच्च विद्यालय बैंगरा
प्रखंड – बंदरा ( मुज़फ़्फ़रपुर
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