कर्म
जो किया जाता है, वही होता है ‘कर्म’,
जो करने योग्य हो, वही है कर्त्तव्य-कर्म,
कहते हैं, कर्म के होते हैं तीन प्रकार,
प्रारब्ध, संचित और क्रियमाण कर्म,
जो भोग रहे हैं, वह है प्रारब्ध कर्म,
जो संस्कार रूप में संचित, वह संचित कर्म,
जो हम वर्तमान में कर रहे, वह क्रियमाण कर्म,
सब कर्मों पर भारी पड़ जाता है क्रियमाण कर्म,
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन,
गहना कर्मणो गति: यही तो है सभी कर्मों का मर्म,
फल पर विचार कर निरंतर किये जा अपना कर्म,
दुष्कर्म छोड़, सत्कर्म किये चल, यही है निज धर्म ।
…..गिरीन्द्र मोहन झा
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