झांकती हुई दो सूनी आंखों में
खौफ नहीं
जीवन जी लेने की तत्परता है
दोनों कानों पर झूलता हुआ
बित्ते भर का कपड़ा
कफन की तरह पसरा हुआ है इन दिनों…
गुमसुम मौत
रुठी हुई प्रेमिका की तरह
बार बार याद आती है
नकाब के पीछे
उन बोसों के दाग को
छुपाने की असफल चेष्टा में
बार बार मास्क का चेहरे से उतर जाना …
हर जगह
भीड़ ही भीड़ है
शॉपिंग मॉल, दुकानें और गलियों से
गुजरने वाली रेलमपेल
शादी-ब्याह गाने बाजे संग
नाचते कूदते लोग
रेलवे स्टेशनों पर बेतहाशा भागते लोग
अस्पतालों में ठसा ठस भरते कराहते लोग
शमशान घाटों में बढ़ते लोग
फर्क बस इतना है कि
कहीं भीड़ है इंसानों की तो
कहीं मुर्दे खुद अपने क्रिया कर्म में व्यस्त हैं …
कहीं दुल्हन लहंगे की मैचिंग मास्क के लिए चिंतित है
तो कहीं लोग ऑक्सीजन मास्क के लिए
सोशल मीडिया पर जूझ रहे हैं
शादी, ब्याह, मुंडन उपनयन संस्कारों में
यज्ञोपवीत धारण किए हुए लोग
बेनकाब होकर घूम रहे हैं इन दिनों …
कहीं प्रशासन से उम्मीद लगाए लोग
तो कहीं जनता से उम्मीद पाले नेता लोग
उम्मीद है गर कहीं
तो घरों की चार दीवारों में है
उम्मीद उनके लिए नहीं
जिनके पास चार दीवारों से निर्मित
घर का कोना भी नसीब नहीं
आंकड़ों का नवीनीकरण हो गया है
इन दिनों
भूखमरी और बेरोजगारी की मौत भी
अब महामारियों की चपेट में आने लगे हैं …
बंद टीवी में चीखते चिल्लाते
एंकरों के बीच
दबी सिसकियों के भीतर
दबे हुए कुछ लोग
अब भी ढूंढ़ रहे हैं
शब्दकोश में
अपने और परिजनों के बीच
सोशल डिस्टेंसिंग के अर्थ …
सिगरेट के धूओं में
स्याह सफेद सपने धूमिल होते जा रहे हैं
इन दिनों
हथेलियों के स्पर्श में
सैनिटाइजर्स की गंध
इस तरह घुल गई है
कि हम भूल रहे हैं
हम कहाँ हैं ?
घरों में?
अस्पतालों में?
बाजारों में ?
या फिर मुर्दा घरों में …
सीमा संगसार
राजकीयकृत मध्य विद्यालय, बीहट बरौनी