Site icon पद्यपंकज

निहारे जा रहा हूॅं मैं- रामपाल प्रसाद सिंह ‘अनजान’

निहारे जा रहा हूॅं मैं।


फिर से चित्र बनाने को,
फिर से इत्र सुॅंघाने को,
लेकर खुशी के ढोल-,नगारे जा रहा हूॅं मैं।
निहारे जा रहा हूॅं मैं।

पुन: आदि सीमाने को,
द्वार-द्वार सिरहाने को,
गली खेत-खलिहानों को,पुकारे जा रहा हूॅं मैं।
निहारे जा रहा हूॅं मैं।

जहाॅं चाहे मिले साथी,
बने बंदर कभी हाथी,
बनाए नाव कागज के,सॅंवारे जा रहा हूॅं मैं।
निहारे जा रहा हूॅं मैं।

कभी गिरना कभी उठना,
कभी रोना कभी हॅंसना,
कभी जिद्दी बना बैठा,दुलारे जा रहा हूॅं मैं।
निहारे जा रहा हूॅं मैं।

पतंगें भी उड़ाता था,
तितलियों को फॅंसाता था,
बिना परिधान के लॅंगटे-,उघारे जा रहा हूॅं मैं।
निहारे जा रहा हूॅं मैं।

कभी मैं था बहुत कच्चा,
हृदय था साफ अरु सच्चा,
वही सच्ची सरस जग के,सहारे जा रहा हूॅं मैं।
निहारे जा रहा हूॅं मैं।

जगत्”अनजान”अब कहता,
सुनहले दिन नहीं रहता,
उमर है साठ होने को,बिसारे जा रहा हूॅं मैं।
निहारे जा रहा हूॅं मैं।

रचनाकार
रामपाल प्रसाद सिंह ‘अनजान’

प्रभारी प्रधानाध्यापक मध्य विद्यालय दरवेभदौर
ग्राम पोस्ट थाना भदौर प्रखंड पंडारक पटना बिहार

0 Likes
Spread the love
Exit mobile version