कुछ शरारतें और नादानी
याद जाती अपनी शैतानी,
कभी सोचकर शर्म के मारे
आ जाता आंखों में पानी।
धमाचौकड़ी खूब थे करते
गिरने पर आहें थे भरते,
भैया,पापा,चाचा के अलावे
बाकी लोगों से नहीं थे डरते।
बस्ता ले विद्यालय जाते थे
रास्ते में ही छिप जाते थे,
गुरुजी ढूंढने घर को आते
कान पकड़ कर ले जाते थे।
हाथ बांध उल्टा लटकाते
डंडा दिखाकर थूक चटाते,
कसमें खाकर कान पकड़ना
पर आदत से बाज न आते।
शाम को वापस घर को आते
चना-चवेना कुछ भूंजा खाते,
दोस्तों के संग आंख मिचौली-
खेलने को हम मैदान में जाते।
सेल कबड्डी लुकाछिपी
कभी चिल्लाकर साधते हुप्पी,
दौड़-भाग में पैर फंसा कर
जोर से लगाते पीठ पे थप्पी।
जोर से हंस कर मुंह चिढ़ाना
दौड़ में रास्ते की धूल उड़ाना,
गंदे कपड़े में घर आने पर,
डाँट खाने पर मुंह लटकाना।
बाग में घुसकर आम तोड़ना
पकड़े जाने पर हाथ जोड़ना,
रोज दिनों की आम बात थी
रखवाले की सिर फोड़ना।
घरवाले जब तंग हो जाते
शिकायत सुन दंग हो जाते,
कुछ दिनों तक पहरेदारी होती
लोगों से तु तु, मैं मैं जंग हो जाते।
जैनेन्द्र प्रसाद रवि’
म.वि. बख्तियारपुर, पटना