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मनहरण घनाक्षरी- जैनेन्द्र प्रसाद ‘रवि’

Jainendra

टहनियों पत्तियों से

ओस है टपक रही,

कुहासे से पटा हुआ,

खेत-वन-बाग हैं।

तन को गलाता तेज

पछुआ पवन बहे,

ठंड से ठिठुरा हुआ,

पिल्ला और काग है।

तन पे वसन फटा,

भूख से बदन टूटा,

झोपड़ी में बुझी हुई,

अंगीठी की आग है।

गरीबों का पेट भूखा,

हवाओं का आता झोंका,

हाड़ को कँपाती जैसे,

डँस रहा नाग है।

जैनेन्द्र प्रसाद ‘रवि’
म. वि. बख्तियारपुर, पटना

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