हांं, हूं मैं एक अंतर्मुखी,
रहती, हूं मैं स्वयं में सिमटी,
कभी हूं मैं कविता मन के तरानों की,
कभी हूं मैं आशा हौसलों के उड़ानों की,
तो कभी हूं मैं निशा,
समाई हुई अंतर मन में रात्रि की गहराइयां।
अवलोकन हूं मैं स्वयं की,
आलोचना हूं निचोड़ तथ्यों की,
अनंत संभावनाओं की सार गढ़ती हूं,
भीड़ में चलती हुई भी अकेली रहती हूं।
जी थोड़ा सकुचाती हूं,
सुनती सबकी, पर बोल नही पाती हूं।
मेरी अपनी दुनिया है,
मौन मेरा गहना, एकाकी मेरा आशियां है।
द्वारा: अदिती भुषण
विद्यालय: प्रा० वि० महमदपुर लालसे
प्रखण्ड: मुरौल
जिला: मुजफ्फरपुर
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