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वो होली का अंदाज़ कहाँ -अवनीश कुमार

अब वो फनकार कहाँ,
अब वो रंगों का चटकार कहाँ,
अब वो अल्हड़-सी शरारतें कहाँ,
अब वो फाल्गुन का अंदाज़ कहाँ?

अब वो ढोल-मंजीरा सजी शाम कहाँ,
सजी महफ़िल में बादाम-किशमिश बँटते हाथ कहाँ?

अब वो रंग-गुलाल कहाँ,
अब वो गोरे गालों पर दमकते अबीर-गुलाल कहाँ?
अब वो रंगों-सी सजी ससुराल कहाँ,
अब वो कीचड़ से सना वो गाँव कहाँ?

अब वो होली को हुड़दंग बनाते लोग कहाँ,
अब वो होलिका जलाते जश्न कहाँ?

अब वो बाँस से बनी पिचकारी की बौछार कहाँ,
अब वो हाथों से गुथी गुजिया का गुलज़ार कहाँ?
अब वो शाम ढलती छत पर सजे दोस्तों की चौपाल कहाँ?
अब वो दोस्तों के संग “बुरा न मानो, होली है!” कहने का अंदाज़ कहाँ?

अब वो खुलकर होली खेलने की बात कहाँ,
अब वो टोली संग बेमतलब घूमने का उल्लास कहाँ?

होली है, तो है…
होली है, तो है…

पर वो होली का अंदाज़ कहाँ?
पर वो होली का अंदाज़ कहाँ?

अवनीश कुमार
बिहार शिक्षा सेवा
व्याख्याता
प्राथमिक शिक्षक शिक्षा महाविद्यालय, विष्णुपुर, बेगूसराय

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