“संस्कारों का संगम”
संयुक्त कुल की छाया में,
बचपन बुनता स्वप्न सुनहरे।
दादी की गाथा, दादा की सीख,
संस्कार बिखरें प्रेम मनहरे।
चाचा की डाँट, चाची का स्नेह,
सब मिलकर ढाल बनाते हैं।
नन्हे मन को, अनुभव देकर,
जीवन के सब रंग सिखाते हैं।।
जहाँ एकलता में चुप्पी घुले,
वहाँ बातें कम, काम ज़्यादा।
माँ-बाबा भी जब व्यस्त रहें,
तो बचपन पूछे -“कहाँ है दादा?”।।
संघर्षों से जो सीख मिले,
वो संयुक्तता में पलती है।
त्याग, धैर्य और मेलजोल,
बचपन को सच में ढ़ालती है।।
पर आधुनिकता का यह भी कहें,
एकल जीवन में समय सीमित।।
स्वतंत्रता और निजता संग,
विकसित होती क्षमता असीमित।।
न दोष वहाँ, न पूर्ण गुण यहाँ,
निर्भर है वातावरण पर सब।
जहाँ हो संवाद, जहाँ हो स्नेह,
वहीं फलते हैं जीवन तब।।
संयुक्त हो या एकल रूप,
हो परिवार में प्रेम की धारा।
संस्कार, संवाद, अनुशासन ही,
बच्चों का है सच्चा सहारा।
@सुरेश कुमार गौरव, प्रधानाध्यापक, उ.म.वि.रसलपुर, फतुहा, पटना (बिहार)

