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अहिंसा की विजय-सुधीर कुमार 

अहिंसा की विजय

आओ बच्चों तुम्हें सुनाता
हूं मैं एक कहानी 
कौशल नरेश थे प्रसेनजीत 
और श्रावस्ती उनकी राजधानी। 
राजा थे वे बहुत बड़े 
और प्रजा सुखी संपन्न 
पर एक विपत्ति आयी थी 
संकट बन के आसन्न। 
जंगल में एक डाकू रहता 
नाम था जिसका अंगुलिमाल 
बड़ा क्रूर और निर्दय था वह 
थी उसकी आकृति विशाल। 
एक हजार लोगों की हत्या 
का उसने ले लिया था प्रण 
लोगों को मारकर अंगुली काट 
माला में पिरो लेता था पहन। 
त्राही-त्राही कर रही प्रजा थी
फैला था आतंक हर ओर 
कोई भी न जाता था 
उस जंगल में किसी भी छोर। 
बड़े दुःखी थे महाराज भी
इसी बात को लेकर ही 
पहरे कड़े लगा रखे थे 
लोगों के वहां जाने पर भी। 
भगवान बुद्ध आये एक दिन 
पूछा राजा से सारा हाल 
फ़ौरन वे चल पड़े उधर ही 
जहां रहता था अंगुलिमाल। 
पहरेदार के रोकने पर भी 
रूके नहीं थे उनके कदम 
मन में तल्लीन हो बढ़ते रहे 
वे आगे आगे ही हरदम। 
ठहर जा की ध्वनि उन्हें 
थी सुनाई पड़ी दो तीन बार 
लेकिन नहीं रूके वे पल भर 
बढ़ते रहे न मानी हार। 
पल भर में झाड़ी को चीरता 
आ पहुंचा झट अंगुलिमाल 
लम्बा बदन भयंकर चेहरा 
रक्त नयन  बाजू विशाल। 
लेकिन नहीं डरे अमिताभ 
लगे मंद मंद मुस्काने भी 
बोले  मैं तो ठहर गया 
बोलो तुम कब ठहरोगे जी। 
अब बारी थी उस डकैत के 
मन ही मन घबड़ाने की 
सोचा यह है कौन जिसे 
हिम्मत है प्रश्र उठाने की। 
तभी तथागत ने दुहराया 
अपने प्रश्र को फिर एक बार 
बड़ा कठिन अब खड़ा था रहना
फेंक दी उसने अपनी कटार। 
गिर पड़ा फिर उनके चरण में 
बोला दिखाईये राह मुझे 
है समक्ष घनघोर अंधेरा 
अज्ञान है घेरे खड़े। 
बुद्ध ने तब उपदेश दिया उसे 
शांति प्रेम और ममता का 
गले लगाकर साथ ले चले 
दिखाया राह मानवता का। 
विजय हुई थी सत्य प्रेम 
व अहिंसा की फिर तो इससे 
शिष्य बना वह गौतम का 
और नाम मिला आनंद उसे। 

सुधीर कुमार 

म वि शीशागाछी 
टेढ़ागाछ किशनगंज 

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