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इक पल झाँके अंतर्मन-दिलीप कुमार गुप्ता

इक पल झाँकें अन्तर्मन

जीवन के रंगमंच पर
क्या पाने निकला था
क्या लेकर लौट आया
कैसे संजोये थे सपने
क्या बनकर रह गए
बाधाएँ स्वतः आयीं
या दिया मौन आमंत्रण
इक पल झाँकें अन्तर्मन ।

गलती हुई या हुई भूल
क्यों मिला वेदना शूल
क्यों हुई आहत चाहना
कलुषित क्यों मन वासना
कैसे लगी ठेस
क्यों मिला मान अपमान
कहाँ तक पाया सुकून चैन
इक पल झाँकें अन्तर्मन ।

क्यों सद्भाव ठुकराया
कैसे कुभाव सुहाया
सत्संग पर क्यों अफसोस
कुसंग से क्यों संतोष
किसे अपनाया या दुत्कारा
क्या प्रारब्ध हमारा
क्यों साधे तू आज मौन
इक पल झाँकें अन्तर्मन ।

क्यों जीवन में उहापोह है
गहन तिमिर उद्विग्न व्योम है
क्यों न तटस्थता अपनाकर
भूल सुधार हो शीश झुकाकर
चंचल मन को दें विश्राम
निज कृत का कर मूल्यांकन
समन्वय भाव का हो संप्रेषण
इक पल झाँकें अन्तर्मन ।

दिलीप कुमार गुप्ता
प्रधानाध्यापक म. वि. कुआड़ी
अररिया

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