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जीवनदाता-विजय सिंह नीलकण्ठ

Vijay

जीवनदाता

सब जीवों की यही कहानी
जीवित रहता पीकर पानी
इसके बिना न जीवन संभव
फिर भी करते जन मनमानी।

करते रहता इससे स्नानी
मिलता रहता हर स्थानी
बचपन हो या चाहे जवानी
जन-जन को सुनाता कहानी।

होते इसके तीन रूप
सर्दी हो या तीखी धूप
बदलते रहता अपना रूप
बन जाता सुरूप-कुरूप।

है अद्भुत इसकी माया
कभी किसी ने नहीं भुलाया
इसकी मदद से व्यंजन पकाया
स्वादिष्ट व्यंजन सबको भाया।

इसका अपना रंग न होता
फिर भी रंग को है अपनाता
कभी लाल तो कभी गुलाबी
हरा रंग भी इसको भाता।

इससे बनती अनेकों नदियाँ
चाहे थल हो या वादियाँ
जंगल हो या सुंदर घाटियाँ
हर तरफ बहती है नदियाँ।

भू पर इसकी मात्रा काफी
जिसमें शुद्धता न हो काफी
नदी, झील, तालाब-सरोवर
रहता सागर में है काफी।

खून-पसीने से लथ-पत
प्यासों की है प्यास बुझाता,
भू की ताप मिटाने खातिर
बारिश बनकर भू पर आता।

पेड़-पौधों को जीवन देता
हरियाली को बढ़ावा देता
चाहे मानव हो या दानव
स्वयं जल बन सबको नहलाता।

मुहावरों में इसका प्रचलन
काव्यों का सुंदरतम साधन
पढ़कर प्रसन्न होता है तन-मन
नहीं भुलाते जिसको जन-जन।

फिर भी मानव इसे रूलाता
जान बूझकर दोहन करता
जिससे जन का जी न अघाता
बीमारियों को स्वयं बुलाता।

अपना बदला लेने खातिर
तरह-तरह का रूप बनाता
बाढ़, सुनामी, चक्रवात बन
जीव-जंतुओं को है डुबोता।

हम मानव से इसका कहना
मुझे भी संरक्षित रखना
समय रहते नहीं चेतोगे
होगा भू पर मुश्किल रहना,
सभी जीव खत्म हो जाएँगे
फिर न कभी जीवन पाएँगे।

विजय सिंह नीलकण्ठ
सदस्य टीओबी टीम

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