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मैं एक पुस्तक हूँ-भोला प्रसाद शर्मा

मैं एक पुस्तक हूँ

मैं एक पुस्तक हूँ।
मैं दया, धर्म, भाव का एक बीड़ा हूँ,
जो मुझमें समा जाय वह शेष मात्र नहीं।
हर संकट, सरस, समागम, खोज समर्थन शौर्य का,
हर रत्नों में अनमोल रत्न हीरा हूँ।
मैं एक पुस्तक हूँ!

मुझमें मुझको मुझपर कोई गर्व नहीं,
न दिखता न लगता कोई सर्द नहीं।
क्या वह गर्म हवा क्या नमी की आहटें,
क्या अग्नि की लौ न भीनी स्वाद की चाहतें।
न रखता कोई ख्वाहिश हूँ,
मैं एक पुस्तक हूँ।

अगर मेरा एहतराम करो;
सम्भल कर मुझपर काम करो,
राह चूमेगी चरणों को,
खुद पर भी तुम नाज़ करो।
लेंगी नींद अँगराई भी;
होंगे चमन बहारों में,
घर आँगन भी रौशन होगा; चमको चाँद सितारों में।
क्योंकि मैं ज्ञान का पिटारा हूँ,
मैं एक पुस्तक हूँ।

हर नज़्म भी मेरा कुछ कह जाता तुम्हें,
कुछ दर्द भी सराहा जाता तेरा।
कटी पतंग सी ख्वाब भी सजाया करता हूँ,
शौख उसका भी जश्न बन जाता मेरा।
खुशदिल का शौकीन हूँ,
मैं एक पुस्तक हूँ।

मुझे न फेंका करो जुल्मों के बाजारों में,
न बेचा करो मुझे रद्दी के भावों में।
गर चुभती हो रहना मेरा तेरे गलियारों में,
कर दो हमें नीलाम उन मासूम सी प्यारों में।
उसके लिए मैं एक फूल हूँ,
मैं एक पुस्तक हूँ।

शायद दर्द भी होता होगा मेरे हमजोली को,
वह भी न सहमत होता होगा सुन तेरी बोली को।
क्योंकि जो मैंने दिया तूने उसे पढ़ा नहीं,
अपने लफ्ज़ो में उतारा पर उसे गढ़ा नहीं।
कर खता तू मैं शर्माता हूँ,
मैं एक पुस्तक हूँ।

भोला प्रसाद शर्मा (शिक्षक)
डगरूआ, पूर्णिया (बिहार)

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