मेरा बचपन
बचपन के दिन भी क्या दिन थे।
ऐसे अनुपम और अनुठे वो दिन थे।
बचपन के दिन भी क्या दिन थे।
दादा-दादी मम्मी-पापा के क्या प्यार मिले थे,
नटखट और बदमासियों के सुर ताल मिले थे,
खाने पीने हँसने रोने के तारम तार मिले थे।
बचपन के दिन भी क्या दिन थे।
एसे अनुपम और अनूठे वो दिन थे।
ज्यों ज्यों बड़े हुए हम जिम्मेदारी बढ़े मिले थे।
न रहा नटखटपन न रहा लड़कपन दोनों के संग साथ छुटे थे।
अपनों से भी कई टकरार मिले थे।
बचपन के दिन भी क्या दिन थे।
ऐसे अनुपम और अनूठे वो दिन थे।
सखी-सहेली साथी संगत में रहा करते थे।
कभी कागज की नाव बनाके
कभी गुडियों संग खेला करते थे।
कमी आँख-मिचौली डेंगा-पानी
कितकित भी बोला करते थे।
अब न रही वैसी बातें मन में रह गई कई सौगातें।
बचपन के दिन भी क्या दिन थे
ऐसे अनुपम और अनूठे वो दिन थे।
बचपन के वो शोर शराबा,
मन को अब लगते है भावा।
मन की बात मन में ही रखना,
खुश हूँ कहना बन गई दिखाबा।
मन की इच्छा वेधड़क मम्मी से कहती थी
अब मन की बात किसी से न कह पावा।
साथी संगी भी क्या खुब मिले थे।
बुद्धू लूजर एक दूजे को कहा किया करते थे।
बचपन के दिन भी क्या दिन थे
ऐसे अनुपम और अनुठे वो दिन थे।
अब खुद बनी मैं एक माँ बढ़ती गई जिम्मेदारी।
कैसे करु बच्चों की अच्छी परवरिश
मन में यह चिन्ता भी भारी।
कैसी नैतिकता का पाठ पढ़ाऊँ
कि बच्चे खुद चलाए दुनियाँ दारी ।
जब मन दु:खता है तो कभी कभी लगती है ,
ये दुनियाँ धुंधली है सारी।
बचपन के दिन भी क्या दिन थे
ऐसे अनुपम और अनूठे वो दिन थे।
रीना कुमारी
प्रा० वि० सिमलवाड़ी पश्चिम टोला
पूर्णियाँ