निश्छल बंधन
अतुलनीय है प्रकृति जिसकी,
मिली है उसकी छांव हमें,
बिन बंधनों के साथ चला मैं,
मिल जाए कहीं वरदान हमें।
स्वभाव सरल तो है हीं तेरा,
हृदय भी विस्तृत है तुझमें।
जगदीश करें मन पूर्ण तेरा,
आशाएं बंधी जो जीवन में।
थे कदम बढ़े निश्छल मन हीं,
दी तुम ने एक पहचान मुझे।
ईश्वर को मंजूर यही था,
मिल जाएगा अनजान तुझे।
बांध दिया प्रकृति ने फिर,
अनमोल-पवित्र उस धागे से,
हर रस्म- रिवाज से जो ऊपर,
एक बहन को अनुज के वादे से।
स्वरचित
नितेश आनन्द, शिक्षक
मध्य विद्यालय जहांनपुर, बेगूसराय
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