हजार पैबन्द लगी
चिथड़े चिथड़े से बुनी बनी
टुकड़ों में बुदबुदाती कविता…
रास्ते के उदास
मील के पत्थर की तरह
अगले शहर की दूरी भर बतलाती
भावशून्य हो गयी है कविता?
वह भी नहीं चाहती
पथिक तुमसे
मेलजोल बढ़ाना
वह मूक है बस
देखती है
तुम्हारा आना जाना।
किसी कामना की
किसी तृप्ति से अब
मतलब नहीं रखती है कविता,
वह नहीं चाहती
किसी खास सुमधुर, सुंदर स्वर को
सजाना
उसे हमारे लिए गुनगुनाना।
अब वह
बन्धनमुक्त है
चाहती है अपने विचलन में ही बसना
अपने बेरूप पन को
खोना नहीं चाहती
हमारे लिए
बार बार/हजार बार?
क्या भला होगा इससे
झूठे सच की अच्छी आवृतियों से
क्या यह मात्र मनोरंजन है!
हमसे यह भी पूछती है कविता?
कविता बेखौफ है
पुरस्कार की लिप्सा से
बस वह कविता होना चाहती है
बस वह मानवीय होना चाहती है।
यह बदलाव कैसा कुछ है!
कविता का विद्रोह
या फिर करुण प्रलाप…!
बदलते युग की वीणा का
बदला हुआ सुर जैसा।
और वह खुश है
अपने पैबन्द के साथ
अपनी अस्मिता को जी रही है कविता
किसी नवयुग के
नवस्वर की बाट जोह रही है।
जब कोई पथिक आए
उसे मील के पत्थर से अधिक समझे
उसे अपना कह कर दुलराए
कुछ उसे भी बताए,
वह कहाँ जा रहा है!
कुछ प्रयोजन
कुछ सुख दुख जैसा?
यही कुछ स्वर अस्फुट सा तैरता है
कविता की पैबन्द के समांतर
एक ही साथ
विद्रोह, विस्मय, चिंता, स्नेह के
सभी भावों को संजोए
यही कुछ रचती है कविता
पैबन्द लगी कविता!!!
गिरिधर कुमार
म. वि. बैरिया
अमदाबाद, कटिहार