शहर
शहरों की रौनक होती भीड़ है
पर ये तो सहता रहता पीर है
हरित, शांति को ये सदा तरसता
पल-पल वाहनों से धुआँ बरसता
जहाँ भी देखो शोर-शराबा है
आगे निकल जाने का दावा है
यहाँ सब अपने में खोये रहतें
सुख-दुःख अपना वे नही बाँटते
दया, मदद नही, यहाँ छलावा है
भोंडे फैशन का बस दिखावा है
पर अच्छाई भी शहर की होती
सभी वर्गों को रोजी-रोटी मिलती
शहर देश-विकास का आधार है
थोड़ी कमी, बाकी निराधार है
✍️विनय कुमार ‘ओज’
आ. म. वि. अईमा
खिजरसराय ( गया )
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