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सुवासित आत्मिक चेतना-दिलीप कुमार गुप्त

सुवासित आत्मिक चेतना 

हे शतरूपा, निरंजना
किस विधि करूँ वंदना
दृष्टि कूप तिमिर विपन्न
तू विश्वा सदज्ञान सम्पन्न
चतुर्दिक तम घना बसेरा
तुम बिन कहो, कौन सहारा
अन्तस दारुण दर्द विह्वल
दिखा सदज्ञान का दीप धवल

हे विमला, वागेश्वरी
किन साधन करूँ पूजा तेरी
अन्तर्मन मलिन द्वेष दंभ भरा
तू वैष्णवी विद्या परा अपरा
पियूष त्याग विषबेल लिपटा
उर सिंधु संकीर्ण तट सिमटा
कराह रहा दुर्व्यसनो संग
सुन आर्त पुकार दे सत्संग।

हे सौम्या, पदमालोचना
कैसे करूँ उपासना
उद्वेलित हिय त्रैतापों से
तू विमुक्त विविध संतापों से
अंतरंग समाहित राग द्वेष
कलुषित वाह्याभ्यंतर गणवेश
धूल धूसरित सदव्यवहार
कर दया जागृत शुभ संस्कार।

हे सुरवन्दिता, विद्या शक्ति
कैसे करूँ स्वतंत्र भक्ति
आकंठ डूबा वासना में
तू स्वतंत्र नश्वर कामना में
व्याप्त निशा अविद्या का
अभिमान मुखर पांडित्य का
अशोभनीय मानवीय वेदना
सुवासित हो माँ आत्मिक चेतना ।

दिलीप कुमार गुप्त
कुआड़ी अररिया 

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