तटस्थता
सभ्यता के इस नए दौर में
वो बेबाक़पन,
अपनों संग ठहाके
और
अल्हड़पन जाने कहाँ हो गए गुम …..
जिंदगी की धूप-छाँव में
तपिश को झेलते झेलते
मनुष्य का अंतर्द्वंद्व नहीं रूकता
रूक जाती है तो,
उसकी बिंदास अदा और
बात बेबात
महफ़िल में खुलकर ठहाके लगाना …..
उनकी जगह ले लेती
खोखली-सी एक मुस्कान
जो हर दर्द सहकर भी,
खुश दिखने का स्वांग रचाती है
साथ ही यह बताती है कि ,
हर दर्द को सहने की
आदत होनी चाहिए
ताकि कोई नया दर्द
किसी से उपहारस्वरूप
जिंदगी में जब मिल जाए
तो मन वहाँ तटस्थ बना रहे
पूर्णतः तटस्थ …..
अर्चना गुप्ता
अररिया बिहार
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