तू मानव है
जब-जब मानव को अभिमान हुआ
सर्व-श्रेष्ठ होने का भान हुआ,
कुदरत ने तोड़ा दंभ तेरा
तुझे तुच्छ अहं का ज्ञान हुआ।
तूने “वसुधा” की हरियाली को
बनकर कुल्हाड़ी काट दिया,
एक-एक “सांस” को तरस रहा
अब जीवन का मुहताज हुआ।
जीवो में है “श्रेष्ठ” मगर
तुझे मानवता की नहीं फिकर,
तू जनम मनुष का लेता है
इंसान कहाँ बन पाता है ।
धरती का दोहन करता है
कोई फर्क नहीं तुझे पड़ता है,
इंसान तेरे इस करनी का
सबको कीमत भरना पड़ता है।
बहती नदियों को रोकेगा
क्या! पवन के रूख को टोकेगा,
मानव तेरे बस में नहीं,
जो “सृष्टि” को तू लूटेगा।
आसमान को लाँघ दिया
तूने सागर को भी बांध दिया,
खुद को “नारायण” मान लिया
तू मानव है यह भूल गया।
स्वरचित
डॉ अनुपमा श्रीवास्तवा 🙏🏻🙏🏻
मुजफ्फरपुर बिहार
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