यादों का वातायन
जब आता है आम का मौसम
याद आता है मुझे अपना गाँव।
हरे-भरे, सुहाने खेत-खलिहान
और पेड़ों की वो घनेरी छाँव।
यादों के वातायन से आज
झाँक रहा है मेरा बचपन।
मैं हूँ अपने चौथे पड़ाव में
उम्र है तीन जमा पचपन।
मानस-पटल पर दस्तक देता
वह प्यारा आम का बागीचा।
बांसों से निर्मित मचान वहाँ
हमारे लिए बन जाता गलीचा।
दिन हमारे वहीं थे गुज़रते
करते रहते थे हम मस्ती।
खेलते- कुदते, आम चुनते
और करते हम मटरगश्ती।
जब आम्रपतन होता कहीं
दौड़ पड़ते हम उस ओर।
पहले पहुंचने की होड़ में
करते हम कोशिश पुरजोर।
तेज कदम, बदन में फुर्ती
नहीं कभी रहती थी सुस्ती।
कभी-कभी तो एक आम पर
हो जाती हमलोगों में कुश्ती।
बारिश की जब होती आशंका
या हवा हो जाती बलवती;
निकल पड़ते हम रात्रि में भी
लेकर झोला और चोरबत्ती।
दूसरों के बागान से भी हम
तोड़ते आम, खाते बांटकर।
पकड़े जाते जब तोड़ते आम
भगाए जाते थे हम डाँटकर।
अगले दिन फिर वही शरारत
दुहराई जाती वही कहानी।
रखवाली करनेवालों को हम
याद दिला देते उनकी नानी।
बड़े जतन से आम्र-तरु से
हम लटकाते अपने झूले।
उन झूलों के चरमानन्द को
आज भी हम नहीं हैं भूले।
दिलीप कुमार चौधरी
अररिया