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क्या मैं अबोध हूॅं – राम किशोर पाठक

क्या मैं अबोध हूॅं।

माँ
सुनो तो,
एक बात जरा,
क्या मैं अबोध हूॅं ?
पाँच वर्ष की हो गयी,
बहुत कुछ समझने भी लगी हूँ,
तुम्हारे साथ अक्सर हाथ भी बटाती हूॅं।
माँ
तुम्हारी बेटी,
तुम्हारी परछाई हूॅं,
फिर क्यों बोझिल सी,
तेरे आँखों में नजर आयी,
बेबस, लाचार सी क्यों हो गयी,
तेरा चेहरा साफ-साफ बता जाती है।
माँ
क्या तुम,
खुश नहीं हो?
पर इतना तो बताओ,
लड़कियाँ होती हीं नहीं तो,
क्या लोग कभी माँ कह पाते?
क्या माँ के बगैर दुनिया चलती है!
माँ
रोना नहीं,
मायूस होना नहीं,
तुम साथ देकर देखो,
जीवन के किसी मोड़ पर,
मैं लड़कों से कमतर नहीं हूँ।
इसे सिद्ध करने का वचन देती हूॅं।
माँ
बेटी को,
गले से लगाई,
होठों पर मुस्कान लायी,
सारी चिंता छूमंतर हो गयी,
असीम आनन्द से आँखें भर आयीं,
बोली बच्चियाँ जल्द बड़ी हो जाती है।
माँ
तू सौभाग्य,
धन्य बनाती है।
ममता के साथ में,
बच्चियाँ तो जन्म से हीं,
माँ का रूप लेकर आती है।
वाकई लड़कियाँ हीं तो सृष्टि चलाती हैं।

रचयिता:- राम किशोर पाठक
प्राथमिक विद्यालय भेड़हरिया इंगलिश पालीगंज पटना।
संपर्क – 9835232978

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