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गंगा अब मैली नहीं- कंचन प्रभा

Kanchan

सुनाई देती है वही
सुरीले पंछी की चहचहाहट फिर से
है हवाओं में शीतल सी
वही गीतों की गुनगुनाहट फिर से
दिखाई देती है अब
साँझ की दुल्हन में शरमाहट फिर से
फूलों पर रंगीन तितलियों की
नजर आती है फड़फड़ाहट फिर से
गंगा भी अब मैली नहीं
उसकी निर्मलता में है सरसराहट फिर से
प्रदूषण की धुँध हुई विलय
वादियों में आई है खिलखिलाहट फिर से
धानी चुनर वह आश्मां में
रुई के बादलों में गड़गड़ाहट फिर से
सफ़ेद मोतियों की बंदों में है
पायल की छमछ्माहट फिर से
प्रकृति की साँसों पर सजती है
सदियों पुरानी वही मुस्कुराहट फिर से।

कंचन प्रभा
रा0मध्य विद्यालय गौसाघाट ,सदर,दरभंगा
कविता

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