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जीवनदान- विजय शंकर ठाकुर

// जीवनदान //

पेड़ खड़े थे,
पत्ते हरे थे,
फल लगे थे,
झूले डले थे,
बाहर धूप थी,
वहां छाया थी,
वे सब यहां आए,
आपस में बुदबुदाए,
उठाई आरी,
चलने लगी कुल्हाड़ी,
हमने शोर मचाया,
बालक वहां दौड़ा आया,
वह पेड़ से लिपट गया,
मैं भी वहीं सिमट गया,
वे सब अब मजबूर थे,
अपने घर से बहुत दूर थे,
उनमें भी चेतना जगी,
फेंक दिया कुल्हाड़ी,
तोड़ दी आड़ी,
वेअंतः मन से घायल थे,
और अब बालक के कायल थे,

पेड़ अब भी खड़ा है,
मोटा और बड़ा है,
चिड़ियां आती हैं,
सुनाती हैं गीत,

विजय शंकर ठाकुर

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