दर्श का फूल खिलेगा।
दौड़ रहा है कंस,नहीं है कोई चारा।
ऑंख फाड़कर देख,रहा घिरता ॲंधियारा।।
आया तेरा जन्म,दिवस तम दूर रहेंगे।
मानव श्रद्धा भाव,लिए भरपूर रहेंगे।।
जब तक तुम हो सिंधु,सभी उतराए नैय्या।
तुममें है विश्वास, वही हो कृष्ण कन्हैया।।
कोई भी आघात,व्यर्थ तुम कर पाओगे।
गीता का उपदेश,युद्ध में समझाओगे।।
पूर्ण चंद्र पश्चात्, शुभंकर दिवस मिलेगा।
गिनकर शुभ दिन आठ,दर्श का फूल खिलेगा।।
भूख प्यास को त्याग,भक्ति साकार हुई है।
व्याकुल होकर नार,शक्ति साकार हुई है।।
वृंदावन में प्राण,बसाए हैं गिरधारी।
कुछ ही पल के बाद,सुनेंगे हम किलकारी।।
द्वापर की वह रात,आज चलकर आएगी।
घर-घर बंदनवार,देख वह मुस्कायेगी।
फिर से कारागार,देवकी विवश रहेगी।
ऑंसू की है धार,उठाकर पलक बहेगी।।
सिसकी से नि:शब्द,भंग है होने वाला।
स्वप्न देखते कष्ट,कंस है रोने वाला।।
बहे मूसलाधार,भानुजा आज भरेगा।
छूकर कान्हा पाॅंव,राह आसान करेगा।।
सारी अखियाॅं आज,उसी की ओर लगी है।
अष्टम दिन की रात,उजाला संग जगी है।।
धर्म-कर्म में हाथ,बॅंटाने सभी चले हैं।
जन-जन के हिय वृक्ष,भाव भरपूर फले हैं।।
मौसम का आघात,झेलकर चलने वाले।
पाना ही है लक्ष्य,पड़े तलवे में छाले।।
खुश होकर मैं आज,चला हूॅं लिखने रोला।
हे गिरधारी! आप,स्वच्छ रख मेरा चोला।।
मैं तो हूॅं ‘अनजान’,करूॅंगा फिर अगवानी।
राग-द्वेष दुर्गंध,हीन करना मुखवाणी।।
✍️✍️रामपाल प्रसाद सिंह ‘अनजान’

