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दूर तक चलते हुए – शिल्पी

घर की ओर लौटता आदमी

होता नहीं कभी खाली हाथ

हथेलियों की लकीरों संग 

लौटती हैं अक्सर उसके

अभिलाषाएं, उम्मीद, सुकून

और थोड़ी निराशा

 

घर लौटते उसके लकदक कदम

छोड़ते नहीं अपने पीछे पदचाप

धुंध सी उड़ जाती है कहीं

स्याह चेहरे के अनगढ़े अवसाद

 

आदमी डूब जाता है हर सांझ

पहाड़ों के मध्य 

या फिर किन्हीं दरारों में

फिर से उग आने की 

अपनी उन्हीं ख्वाहिशों में

 

आदमी का लौटना

सिर्फ उसका लौटना नहीं

बोझिल होती सांसो का हल्कापन हैं

जिसके तय करने को फासले

लौटते हैं उसके कदम

घर की ओर

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