सांसारिक क्लेश अब,
नस -नस में चुभने लगी है ।
सत्प्रयोजनों से नाता ,
ज्यों छूटने लगी है ।
हमीं ने किया है ,
ऐसा आयोजन ।
हमी से फैली है ,
क्लेशों की तड़पन ।
विकलता इसी से ,
समाने लगी है ।
ज्यों हँसमुख चेहरा ,
मुरझाने चली है ।
आधार को खोया हमने ,
सद्बुद्धि हमने छोड़ी ।
सांस्कृतिक धरा से ,
ज्यों मुख हमने मोड़ी ।
प्रकृति का तांडव ,
अब नित चलता रहेगा ।
मायूस होकर जन -जन ,
अब नित जलता रहेगा ।
प्रकृति से छेड़ -छाड़ ,
जबतक हम करते रहेंगे ।
विकलता में सदा रह ,
हम हाथ मलते रहेंगे ।
प्रकृति से गुस्ताखी ,
सब पर भारी पड़ने लगी है ।
ज्यों बुद्धि विकृति से ,
तबाही बढ़ने चली है ।
छलने का काम ,
हम सबने किया है ।
विश्वास को हमने ,
न कभी जमने दिया है ।
,अभी भी हम संभलें ,
नित होशियार हो के ।
नहीं तो पछतायेंगे ,
हम सब कुछ खो के ।
रचयिता :-
अमरनाथ त्रिवेदी
प्रधानाध्यापक
उत्क्रमित उच्च विद्यालय बैंगरा
प्रखंड -बंदरा ( मुज़फ़्फ़रपुर )