माटी का एक दीया टिमटिमा रहा था
अज्ञान उसे घूर रहा था
मीठी बयार दीया को
बुझाने की सोच रही थी !
मैं सोच रहा था
आखिर दीया किसका है?
गरीब या अज्ञान रुपी बस्ती का
या प्रकाश की लौ से
उजाले की ओर ले जाने का !
मेरा मन कहता है, दीया जानता है
अंधकार उसे पसंद नहीं
जलना और दुनिया को
अंधेरे में गुम हो चुकी
तस्वीर को दिखलाना ही
उसकी फितरत है !
दीया के जलने से
अंधेरे को चीरकर अंधकार
टूटकर बिखर जाता है !
टकटकी लगाए दीया को आँधी
बुझाने को जब ठानती है
मानवता की छाँव दीया को
घेर लेती है तब
दीया का मन खिल उठता है
वह मानवता को चहककर कहता है
तुमने किसी को प्रकाशित होते देखा है !
सुरेश कुमार गौरव
उ. म. वि.रसलपुर,फतुहा, पटना (बिहार)
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