गर्म-गर्म हवा चली,
झुलस रही है डाली,
फल-फूल-पत्ते बिना, वृक्ष ये बेकार हैं।
माझी बिना मझधार-
नैया डोले डगमग,
दरिया की बीच धारा, टूटा पतवार है।
अपना भी मुँह मोड़े,
शरीर भी साथ छोड़े,
जीवन में खुशी बिना, सूना ये संसार है।
ग़रीबों- बेसहारों को,
अपना बना के देखो,
संत-प्रेमियों का सारा-जग परिवार है।
जैनेन्द्र प्रसाद रवि’
म.वि. बख्तियारपुर, पटना
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