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हिन्दी हमारी पहचान, हिन्दी नहीं हमारी हार – चाँदनी झा

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हिन्दी नहीं हमारी हार, हिन्दी से है मुझे प्यार।

मिश्री सी रस घोलती, कानों में जब हिन्दी बोलती।

हिन्दी लिखती, हिंदी पढ़ती, हिन्दी मैं बेहतर समझती।

हाँ क्षेत्रीयता का दिखता उच्चारण में कुछ प्रभाव, पर खूब समझती हूँ हिन्दी के भाव।

प्रेम, पूजा, प्रार्थना, हिन्दी रचती हर एक भावना।

हर भाव में हिन्दी जान फूंकती, नफ़रत, मोहब्बत, इबादत, मन्नत सब को समेटकर खूब थिरकती।

उर्दू है इसकी सहेली, संस्कृत जननी, भारत सहित कई देशों में हिन्दी कहती बातें मन की।

कुछ कहना हो दिल की बात, हिन्दी में सजते हैं खूबसूरत जज़्बात। 

मैं लिख डालूँ दो-चार पन्ने हिन्दी में,  फिर भी लगता कम, मातृभाषा हमारी, राजभाषा लगती अपनी सी, लगती नम।

हिंदीभाषी हैं हम, नहीं दूसरी भाषा से नफ़रत, पर हिन्दी तो लगती जैसे हो जन्नत।

हिन्दी हमारी अस्मिता की पहचान, हिन्दी में बसती हमारी जान।

मगही, मैथिली, भोजपुरी, अन्य भाषा से मिलती-जुलती, सीधी सादी अपनी हिन्दी, बिंदी और चाँद से सजती।

हिन्दी जैसे लगता मुझे मक्खन से भी प्यारी,

हिन्दी, हिंदुस्तान, हरियाली, हरी-भरी धरती है पहचान हमारी।

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