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दो जून की रोटी-संयुक्ता कुमारी

दो जून की रोटी

किस्मत से नसीब होती है
दो जून की रोटी।
चहुँ ओर कोरोना हाहाकार मचाये
दुनिया है परेशान,
विवश और लाचार मजदूर हुए हैं।
असमर्थ और परेशान सोच रहे हैं,
अब कहाँ से आएगी दो जून की रोटी?

युद्ध क्षेत्र संसार बना,
परिवार की आवश्यकता में
जीवन भी है भार बना।।
दिल में एक चुभन सी है,
लूटी हुई कुछ ठगी हुई सी
कहाँ से आए दो जून की रोटी?

हे बचपन! दगा दिया तूने,
जवानी के फंदे में फँसा दिया तूने।।
अपना घर अपना खेत खलिहान छोड़,
चले विदेश कमाने थे दो जून की रोटी।

आज फिर से भागे अपने परिवार के बीच,
आँखें सूनी गोद में बच्चे चले जा रहे हैं ,
लॉकडाउन सूनी सड़कों पर
भूखे बदहाल।
कहाँ से आएगी दो जून की रोटी?

आधे रास्ते में कोरेंंटाइन हो रहे हैं,
टक-टक भूखे-नंगे बच्चों को गोद में लिये,
सोच रहें।
कहाँ से आएगी अब दो जून की रोटी?

संयुक्ता कुमारी
क. म. वि. मलहरिया
बायसी पूर्णिया बिहार

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