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अन्तर्व्यथा-जैनेन्द्र प्रसाद रवि

अन्तर्व्यथा

हे प्रभु! है अर्ज हमारी ऐसा समय न आए फिर से।
आस पास रहकर भी हम मिलने को आपस में तरसे।।
हाथ में पैसा रखा रह गया मिला न हमको दवाई।।
दवाखाना सब बंद पड़े थे केवल बीमारी के डर से।।
भूखे बच्चे बिलख रहे थे माँ के आँचल में छिपकर।।
भय के मारे नहीं निकल रहे थे दूध लाने को घर से।।
खेलने को बच्चे तड़प रहे थे खाली देख मैदान।
मन मारकर देखा करता था खिड़की के अंदर से।।
छुट्टी पाकर घर को आया, कोरोंटिन में खुद को पाया।
दूर रहकर तब बातें करता , पुत्र आया जब शहर से।।
रिश्तेदार की इंतकाल का जब संदेशा आया।
सुन कलेजा मुँह को आया अँखियाँ आँसू बरसे।।
सुख-दुःख में थे साथ निभाते, मिल बैठ रोज बातें करते।
कोई कंधा देने न आया, जनाजा निकला अकेले दर से।।
अपनों ने भी किया किनारा, आवाज दे दे कर हारा।
कातर अँखियाँ ढूंढ रहे थे, कोई देखे एक नज़र से।।
बंद है खिड़की बंद दरवाजा, कौन भिखारी कौन है राजा?
कैसे जीवन आज बचेगा महामारी के कहर से?

जैनेन्द्र प्रसाद रवि’
बाढ़ (पटना)

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