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बँटवारा-विनय कुमार

 

बँटवारा 

अक्सर ही
खींच जाती है तलवारें
हो जातें है मुक़दमे
बन जाती है सरहदी लकीरें
अपने ही घर में
अपनो के बीच
ज़मीन के चंद टुकड़ों और
कागज़ी नोटों की चंद गड्डियों
की ख़ातिर
कोई नही चाहता पीछे हटना,
अपना हक़ छोड़ देना
पा लेना चाहता है
पाई-पाई पैसा
और इंच-इंच कोना
चाहे दूरियां कितनी भी बढ़ जाए
चाहे आसमान ही फट जाए
आ जाते है रिश्तों में ख़टास
फ़िर कहाँ आ पाती!
पहली सी मिठास
बंटवारे की इस त्रासदी में

पर क्या,
असल में ये त्रासद है?
या वक़्त की नज़ाकत है?
सहूलियतें देता है ये सभी को
जिंदगी को अपने ढंग से जीने का
स्वयं का परिवार चलाने का
ये तो उत्तरदायित्व का स्थानांतरण है
तभी तो,
नव गृह-स्वामित्व को संपत्ति अंतरण है!

सोचता हूँ
जहाँ इस खून के रिश्ते में
एक दूसरे के लिए
विश्वास, ईमानदारी और समझदारी
गौण होते हैं
वहीं मौन हो जाता है अपनापन
अपनो का
पर !
यही अपनापन
उभर आता है
बाहरी विपत्तियों में
थोड़े समय के लिए ही सही
विश्वास, ईमानदारी और समझदारी
बहाल हो जाते हैं स्वतः ही
भूल जातें सारे मनमुटाव
दूर हो जाते झगडे-फसाद
छोड़ देते अपने अहंकार
मिटा देते दूरियां
एकजुट हो जाते सभी
कर लेते मिलकर सामना
बन जाते इक दूजे का सहारा
त्यज देते अपनो के लिए कुछ
और दे जाते औरों को भी उदाहरण
कि ये खून के रिश्ते
मिटाये नही मिटते
चाहे आपस में
कितना भी बँट जाते !
हर संकट में
खून के रिश्ते ही काम आते

✍️विनय कुमार वैश्कियार
आदर्श मध्य विद्यालय, अईमा
खिजरसराय ( गया )

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