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डर-जैनेन्द्र प्रसाद रवि

डर

डर का दायरा बहुत बड़ा है,
डर के आगे जीत खड़ा है।
डर के मारे भयभीत जो होता,
चैन की नींद वह कभी न सोता।
करता शंका तरह-तरह की,
घुट-घुट अंदर है रोता।
सोच-सोच के दिल में उलझे,
रस्सी को भी सर्प समझे।
मन में उसकी बढ़ती बेचैनी,
सीधी बातें कभी न बूझे।
डर रहता उसका साया बनकर,
पीछा करता छाया बनकर ।
छाया को भी प्रेत समझता,
सिहर जाता थोड़ी आहट पाकर।
मन की शंका बड़ी बिमारी,
कल की चिंता है भयकारी।
वन जीवों को जाल में जैसे,
जकड़ लेता है कोई शिकारी।
होना है जो होके रहेगा,

डरने से फर्क नहीं पड़ेगा।

कर्म है केवल अपने वश में,
कल की चिंता क्यों आज करेगा?
डर निराशा को बढा़ता है,
आशा से साहस होता है।
नकारात्मक भाव दूर भगाकर,
सकारात्मक भाव विश्वास देता है।

जैनेन्द्र प्रसाद रवि
बाढ़ 

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