दीपक
मनन-चिंतन करों बच्चों,
यह दीपक कैसे जलता है,
फ़िज़ा को यह करें रौशन,
तले अंधेरा रहता है।
हरेक मौसम, हरेक बेला,
तमस को दूर करता है,
तिमिर को शोख़ लेता है,
जहाँ को नूर करता है।
करो स्वीकार तुम भी अब,
दीये जैसा तपिश सहना,
कभी तुम हारना नहीं,
सीख़ो अनुभव से तू बढ़ना।
सुमन के साथ काँटे भी,
सदा इक साथ रहता है,
यही सोचो बढ़ो आगे,
लक्ष्य साकार करना है।
नियत रख़ना दीये सा तुम,
बराबर रोशनी देना,
प्रीत की लौ जलाकर के,
हृदय में भाव जगा लेना।
उदासी आँख़ों में रौनक,
सदा दीपक से आता है,
देकर काज़ल का श्रृंगार,
नयनों को सजाता है।
अद्भुत सी छवि इसकी,
ये मन को मोह लेती है,
त्यागना ही सिख़ाता है,
हमें सत्मार्ग दिखाता है।
किसी से यह नहीं जलता,
किसी के लिए जलता है,
उषा का आलिंगन करता,
निशा को दूर करता है।
स्वरचित व मौलिक:
नूतन कुमारी (शिक्षिका)
पूर्णियाँ, बिहार
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