घर एक मंदिर
दुनियाँ की नजरो में
मौन खड़ा रहता है
“घर” भी कुछ कहता है, घर भी खुश होता है।
अपने जब मिलते हैं
हँसते हैं गाते हैं
खुशियाँ मनाते हैं
“वह” भी अपनेपन का रिश्ता निभाता है
घर भी कुछ कहता है।
“घर” भी खिल जाता है
मधुवन बन जाता है
“माँ” सा मुस्काता है
“आंचल” बन ममता का बाहें फैलाता है
घर भी कुछ कहता है।
घर भी एक मंदिर है
“काशी” है, काबा है
“अम्मा” है, बाबा है
“तपती” हुई धूप में “बरगद” सा दुआ देता है
घर भी कुछ कहता है ।
“घर” भी गम ढोता है
सूना जब होता है
अपनो को खोता है
वर्षों तक “यादों” को लेकर वह रोता है
घर भी कुछ कहता है ।
चाहे जहाँ “उड़” लो
तुम्हें कौन रोकता है
हो तिनके का “घोंसला”
वही घर का पता होता है
घर भी कुछ कहता है ।
स्वरचित एवं मौलिक
डॉ अनुपमा श्रीवास्तवा
मुजफ्फरपुर, बिहार
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