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जल की बूंदें-स्वाति सौरभ

जल की बूंदे

मचल रही थी जमीं से ही, उठने को ऊपर की ओर
राह देख रही थी सूरज का, संग ले जाएगा आसमां की ओर
सैर करूँगी आसमान में, देखूँगी ना नीचे ए धरा अब तेरी ओर
ए जमीं जब उठ जाऊँगी ऊपर, तू देखते रहना बस मेरी ओर

उठने लगी फिर जल की बूंदे, मिलने चली बादल की ओर
इठला रही थी ऐसे खुद पर, आना नहीं फिर धरती की ओर
मिल रही थी कई बादलों से, फिर छा गई घटा घनघोर
बातें करने लगी बूंदे आपस में, जाना होगा वापस धरती की ओर

जैसे आए हैं हम ऊपर, वैसे नीचे भी जाना ही है
जिसने हमारा अस्तित्व बनाया, उसका साथ निभाना ही है
गिरना होगा बनकर बारिश की बूंदे, धरती का प्यास बुझाना भी है
जिस धरा पर जन्म लिया, उसी मिट्टी में मिल जाना भी है।

स्वाति सौरभ
आदर्श मध्य विद्यालय मीरगंज
आरा नगर भोजपुर

 

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