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मैं पुस्तक हूं-सुधीर कुमार

मैं पुस्तक हूं

मैं पुस्तक हूं, सच्ची साथी,
सारी दुनिया का ज्ञान हूं,
बच्चे पढ़ मुझे ज्ञानी होते,
ऐसी जग में महान हूं।
मैं गणित की पुस्तक हूं,
बच्चों को डराती हूं मैं।
कभी हंसाती, कभी रुलाती,
सवाल बनवाती हूं मैं।
मैं हिन्दी की पुस्तक हूं,
सुनाती हूं कहानी, कविता।
सपने में उन्हें ले जाती,
जहां है रहती नोबिता।
मैं विज्ञान की पुस्तक हूं,
रहस्य खोलती हूं अक्सर।
कभी चांद तारों पे जाके,
दिखाती हूं दुनिया हंसकर।
मैं इंग्लिश की पुस्तक हूं,
मैं सिखलाती नई भाषा।
देश विदेश में घूमने की,
सबमें मैं जगाती आशा।
मैं समाज की पुस्तक हूं,
इतिहास तुम्हें बतलाती,
कभी कभी मै देश दिखाती,
राजनीति कभी सिखलाती।

सुधीर कुमार

किशनगंज बिहार

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